सित॰, 13 2025
सिर्फ एक ईमेल और राजधानी की सबसे व्यस्त अदालत कुछ घंटों के लिए ठप—शुक्रवार सुबह दिल्ली हाई कोर्ट को मिली बम धमकी ने यही तस्वीर बनाई। 8:38 बजे कोर्ट के आधिकारिक ईमेल पर आउटलुक डॉट कॉम से आया संदेश तीन बम लगाने का दावा कर रहा था, 2 बजे तक इमारत खाली कराने की चेतावनी दे रहा था और 1998 कोयंबटूर विस्फोटों का संदर्भ भी जोड़ रहा था। मेल में जजों के चैंबर को “जल्द उड़ाने” की बात और दक्षिण भारत की राजनीति पर भड़काऊ टिप्पणियां लिखी गई थीं।
कुछ ही मिनटों में कोर्ट परिसर में बेचैनी फैल गई। करीब 11:20 बजे कई बेंचों में जजों ने बिना वजह बताए कार्यवाही स्थगित कर दी और 12:10 बजे पूरे कॉम्प्लेक्स को एहतियातन खाली करा दिया गया। जजों को जजेज़ लाउंज में शिफ्ट किया गया, वकीलों और वादियों को बाहर भेजा गया और गेट्स सील कर दिए गए।
दिल्ली पुलिस, सीआरपीएफ, बम डिस्पोज़ल स्क्वॉड, डॉग स्क्वॉड, फायर ब्रिगेड और एम्बुलेंस—पूरी मशीनरी मौके पर लग गई। एक्सेस कंट्रोल लगा, पार्किंग खंगाली गई, बेसमेंट से लेकर आर्काइव रूम तक तलाशी हुई। बम निरोधक टीमों ने प्रोटोकॉल के मुताबिक हर फ्लोर पर सर्च ग्रिड बनाए, संभावित संदिग्ध बिंदुओं—इलेक्ट्रिक डक्ट, टॉयलेट्स, स्टोर, मीटर रूम—को प्राथमिकता दी।
करीब तीन घंटे बाद, 1:50 बजे, बम स्क्वॉड ने कोई विस्फोटक या ट्रिगर डिवाइस न मिलने की पुष्टि की और हाई कोर्ट को सुरक्षित घोषित कर दिया। थोड़ी देर में गेट खोले गए, जज, वकील और वादी अंदर लौटे और 2:30 बजे सुनवाई फिर शुरू हो गई। जो केस सुबह सूचीबद्ध थे, उनमें से कई की सुनवाई दोबारा शेड्यूल करनी पड़ी—यानी एक फर्जी मेल ने पूरी न्यायिक दिनचर्या को झटका दे दिया।
इस बीच, पुलिस ने शनिवार को बीएनएस (भारतीय दंड संहिता का नया रूप) और आईटी एक्ट की प्रासंगिक धाराओं में केस दर्ज कर लिया। मामला नई दिल्ली ज़िले के साइबर पुलिस स्टेशन में है और एक समर्पित टीम को तकनीकी विश्लेषण की जिम्मेदारी दी गई है। शुरुआती शक है कि मेल वीपीएन के जरिए भेजा गया, यानी भेजने वाले ने अपनी पहचान छिपाने के लिए प्रॉक्सी टनल का इस्तेमाल किया।
इस पूरे ऑपरेशन का एक साफ संदेश है—खतरा फर्जी हो सकता है, प्रोटोकॉल कभी ढीला नहीं पड़ता। बम धमकी का हर संकेत लाइव माना जाता है, क्योंकि एक झूठे अलर्ट की कीमत सिर्फ तीन घंटे की देरी है, जबकि एक असली अलर्ट को हल्के में लेने की कीमत कहीं बड़ी हो सकती है।
साइबर जांच की पहली सीढ़ी ईमेल हेडर का माइक्रो-विश्लेषण होती है—रिटर्न-पाथ, मैसेज-आईडी, रिले सर्वर, टाइमस्टैम्प, और एसपीएफ/डीकेआईएम जैसी ऑथेंटिकेशन ट्रेसेस। आउटलुक जैसे सर्विस पर बने खाते अक्सर क्लाउड सर्वर्स से रूट होते हैं; अगर सेंडर ने वीपीएन या टोर जैसी एनॉनिमिटी लेयर्स लगाई हों, तो आईपी ऐड्रेस की चेन लंबी हो जाती है। ऐसे में पुलिस सेवा-प्रदाता को औपचारिक अनुरोध भेजती है—डोमेन, लॉगिन टाइम, डिवाइस फिंगरप्रिंट और आईपी की जानकारी मांगी जाती है। अगर कोई नोड विदेश में निकलता है, तो म्यूचुअल लीगल असिस्टेंस (MLAT) के रास्ते सहयोग लेना पड़ता है।
दिल्ली के साथ, शुक्रवार को बॉम्बे हाई कोर्ट को भी धमकी मेल मिला। मुंबई पुलिस का प्राथमिक अनुमान है कि दोनों मेल एक ही हाथ से आए—क्योंकि पैटर्न मिलता है: आउटलुक अकाउंट से भेजा जाना, दक्षिण भारतीय राजनीति से जुड़ी साजिशी दावों का जिक्र और धमकी की शैली में समानता। यही वजह है कि जांच टीमें क्रॉस-स्टेट कोऑर्डिनेशन कर रही हैं, ताकि डिजिटल ट्रेल टूटने न पाए।
दिल्ली में पिछले एक साल में 30 से ज्यादा ऐसी ईमेल/कॉल धमकियां दर्ज हुई हैं—कभी स्कूलों को निशाना बनाया गया, कभी अस्पतालों को। हर अलर्ट पर तलाशी, खाली कराना, ट्रैफिक डायवर्ज़न—इन सबकी भारी लागत है: पुलिस बल का घंटों का समय, पब्लिक सर्विसेज़ का ठप होना और लोगों में डर का फैलना। जिन मामलों में वीपीएन का इस्तेमाल नहीं हुआ, वहां कुछ आरोपी पकड़े गए हैं; लेकिन जहां मल्टी-लेयर मास्किंग है, वहां जांच लंबी और मुश्किल हो जाती है।
कानूनी मोर्चे पर, झूठी धमकी देना मामूली शरारत नहीं है। बीएनएस की संबंधित धाराएं सार्वजनिक शांति भंग करने, भय पैदा करने और न्यायिक कामकाज बाधित करने को सख्त अपराध मानती हैं—इसमें कई साल की सज़ा और जुर्माना शामिल हो सकता है। आईटी एक्ट के प्रावधान अनधिकृत एक्सेस, पहचान छिपाने और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से धमकी/दहशत फैलाने के कृत्यों पर लागू होते हैं। अगर धमकी में आतंकी संदर्भ या विदेशी एजेंसी से जोड़कर दहशत फैलाने का इरादा दिखे, तो एनहांस्ड पनिशमेंट की गुंजाइश भी बनती है—इसीलिए जांच एजेंसियां हर पंक्ति के शब्द-चयन का फोरेंसिक भाषाई विश्लेषण कराती हैं।
सुरक्षा के SOP साफ हैं: ह्यूमन इंटेलिजेंस से मिली पहली सूचना पर परिधि सील, प्राथमिक स्कैन, संवेदनशील पॉकेट्स की क्लियरेंस, और उसके बाद सेकेंडरी स्वीप। हाई-फुटफॉल परिसरों में नियमित ड्रिल से प्रतिक्रिया समय घटता है—डॉग स्क्वॉड की टीमिंग, बूम बैरियर और सीसीटीवी कवरेज की हेल्थ-चेक, कंट्रोल रूम का लाइव फीड—ये सब संकट की घड़ी में काम आते हैं। शुक्रवार की कार्रवाई में यही सिस्टम दिखा: तीन घंटे में पूरी इमारत की तलाशी, फाल्स अलार्म की पुष्टि और नियंत्रित तरीके से कामकाज की बहाली।
जांच अब तकनीकी फाइन-प्रिंट पर टिकेगी। अगर आउटलुक अकाउंट की क्रिएशन में कोई मोबाइल नंबर या सेकेंडरी ईमेल जुड़ा है, तो वहां से पहचान की कड़ी मिल सकती है। कई बार संदिग्ध “बर्नर” डिवाइस इस्तेमाल करते हैं—पब्लिक वाई-फाई, प्रीपेड सिम, या समयबद्ध इस्तेमाल वाले हैंडसेट—मगर हर डिजिटल कदम कोई न कोई “मेटाडेटा” छोड़ता है: कीबोर्ड भाषा सेटिंग, टाइपिंग पैटर्न, टाइमज़ोन मिसमैच, यहां तक कि मेल में इमोजी/विराम चिह्नों की आदत। प्रोफाइलिंग टीमें इन्हीं पर काम करती हैं।
ईमेल की भाषा में 1998 कोयंबटूर धमाकों का जिक्र अलग से जांच-योग्य है। उस घटना के संदर्भ का ताज़ा धमकी मेल में आना दो वजहों से महत्वपूर्ण है—पहला, भेजने वाले की स्मृति और सूचना-स्रोत के बारे में संकेत देता है; दूसरा, कॉपी-कैट इंटेंट यानी पुराने हमलों की आड़ में डर फैलाने का इरादा। भाषा-विश्लेषण (लिंग्विस्टिक प्रोफाइलिंग) से लेखक की भौगोलिक पृष्ठभूमि, मीडिया खपत और राजनीतिक रूचि की परछाईं भी मिलती है।
इस तरह की घटनाओं का सबसे बड़ा नुकसान न्यायिक कामकाज पर पड़ता है। हाई कोर्ट में हर दिन जमानत, स्टे, ट्रांसफर, और समय-संवेदी याचिकाएं लगती हैं। अचानक निकासी से कई वाद स्थगित हो जाते हैं—कुछ में तत्काल राहत की जरूरत होती है, जिनमें देरी का असर सीधे नागरिकों पर आता है। यही कारण है कि अदालत प्रशासन अब “कंटीजेंसी स्लॉट्स” और हाइब्रिड सुनवाई के बैकअप पर भी विचार करता है, ताकि फर्जी अलर्ट के बाद भी जरूरी मामलों को रोका न जाए।
बड़े परिसरों के लिए सीख साफ है—फास्ट-ट्रैक वेरिफिकेशन सेल, ईमेल-ऑरिजिन की ऑटो-स्क्रीनिंग, और स्टाफ के लिए माइक्रो-ड्रिल। स्कूल और अस्पतालों में तो यह और जरूरी हो जाता है, क्योंकि वहां बच्चों और मरीजों की निकासी का जोखिम ज्यादा है। आम लोगों के लिए सलाह वही—घबराहट में मैसेज फॉरवर्ड न करें, आधिकारिक अपडेट का इंतजार करें, और संदिग्ध मेल/कॉल की सूचना 112 या साइबर हेल्पलाइन पर दें।
जांच एजेंसियां कह रही हैं कि जरूरत पड़ने पर केस को स्पेशलाइज्ड साइबर यूनिट को सौंपा जा सकता है। इसका मतलब—डीप-फॉरेंसिक, क्लाउड सर्वर से कच्चे लॉग, और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की औपचारिक प्रक्रिया। अगर दिल्ली और मुंबई के मेल एक ही सोर्स से जुड़े निकलते हैं, तो एक समेकित केस बनाकर धाराएं भी कड़ी हो सकती हैं। फिलहाल, दिल्ली की टीम आउटलुक सर्विस-प्रोवाइडर को डोमेन और आईपी की जानकारी के लिए लिख रही है और उसी की प्रतिक्रिया इस जांच की अगली दिशा तय करेगी।
शुक्रवार के डर के बाद जो राहत मिली, वह इस बात से आई कि हर कदम प्रोटोकॉल के मुताबिक उठा—समय पर निकासी, पेशेवर तलाशी, और क्लियरेंस के बाद ही कामकाज की बहाली। फर्जी अलर्ट का मकसद ही यही होता है—प्रणालियों को ठप करना। जवाब में प्रणालियों का धैर्य, रफ्तार और सटीकता ही सबसे मजबूत प्रतिकार है।
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